पृथ्वी
नारायण शाह :
सन् १७४३ में विश्व मानचित्र पर एक ऐसा भूखंड था जहां विधर्मी
हमलावरों का प्रवेश नहीं हुआ था. हिमालय के दक्षिण और गंगा के उत्तर की इस भूमी
में छोटे छोटे अनेक राज्यों का अस्तित्व था. इनके बीच एक राज्य था 'गोरक्षा' जिसे लोग गोरखा भी कहते थें. वहाँ एक राजा थें जिनके वंश को
बाबा गोरखनाथ का आशीर्वाद प्राप्त था. उनके वंश के तार भारत के सिसोदिया राजवंश से
जुड़े थे. राजा पृथ्वीनारायण गोरखनाथ के भक्त थें, वे अपना खुद का
रचा एक भक्ति गीत गुनगुनाते थें "बाबा गोरखनाथ सेवक सुषदाये, भजुहुँ तो मनलाये। बाबा चेला चतुर मन्छिन्द्रनाथ को, अधबुध रूप बनाए।। ". वह भारत में विधर्मियों के आक्रमण से दुखी थे. उनके विचार दिव्य उपदेश में संकलित
है और वे कहते थें "यो अस्सली हिन्दुस्थाना हो" (यह हिंदुओं का असली स्थान
है).
अंग्रेजो का भारत प्रवेश :
सन् १७०० में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सुगबुगाहट शरू
हो चुकी थी. राजा पृथ्वीनारायण अंग्रेजो को फिरंगी कहते थें. फिरंगी भारत में प्रवेश
कर रहे है यह उन्होंने भाँप लिया था.
स्वतंत्र हिंदू राष्ट्र का एकीकरण :
छोटे छोटे राज्य अंग्रेजो से अपनी रक्षा नहीं कर पायेंगें यह
भी उनकी सोच थी, इस कारण सन् १७४४ से उन्होंने हिंदू राज्यों का एकीकरण शुरू कर दिया. यह एक
अत्यन्त कठिन कार्य था. उधर १७५७ आते-आते गंगा के उस पार ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पैर जमा लिया था. इधर राजा पृथ्वीनारायण हिंदू राज्यों के एकीकरण अभियान को निरंतरता दिए हुए
थें. सन् १७७५ में अपनी मृत्यु के पहले वह हिमालय से ले कर मैदानी
इलाको तक के एक बड़े भूखंड का राजनीतिक एकीकरण कर चुकें थे. सांस्कृतिक
एकीकरण उनकी सोच में था. वे कहते थें "मेरा देश चार वर्ण छतीस जात की
फुलवारी है".
नेपाल पर अंग्रेजों की कुदृष्टि :
नेपाल पर अंग्रेजों की कुदृष्टि पड़ चुकी थी. लेकिन नेपाल के
राजा ने उनका आधिपत्य स्वीकारने की बजाय लड़ना बेहतर समझा. सन १८१४ से १८१६ तक नेपाल तथा ब्रिटिश
इंडिया के बीच भीषण युद्ध हुआ. सेनापति भीमसेन के नेतृत्व में युद्ध लड़ा गया.
अंग्रेजो ने भीमसेन थापा को राजा बनाने का प्रलोभन दिया, लेकिन उस हिंदू सपूत ने अपनी जान की बाजी लगाते हुए युद्ध लड़ा और
युक्तिपूर्वक किए गए उस युद्ध में अंग्रेजो को नानी याद आ गई. भीमसेन थापा को
नेपाल के प्रधानमंत्री की बड़ी जिम्मेवारी सौंपी गई.
ताकत की जगह कूटनीति :
अंग्रेजो ने यह जान लिया की ताकत से हिंदूओं की इस देव भूमी
पर कब्जा करना नामुमकिन है. भीमसेन थापा बूढ़े हो चुके थे. अंग्रेजों ने राजदरबारियों
के बीच फुट डालनी शुरू की. सन १८३९ में उन्होंने रणजंग पांडे को प्रधानमंत्री बनवा दिया. भीमसेन थापा पर राजकुमार को जहर देने का झूठा आरोप जड़
बहुतेरे झूठे प्रमाण इकट्ठे कर लिए गए. अंग्रेजो ने लोगों को उनके
खिलाफ भड़का दीया. वह इस आरोप को सह न सके. उन्होंने अपनी खुकरी (कृपाण जैसा
हतियार) निकाल कर स्वयं अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली,
राणाओं का उदय :
नेपाल के राजदरबार में अंग्रेजी षड्यंत्रकारियों (मतियार) का
प्रवेश हो चुका था. सन् १८५० में तत्कालीन प्रधानमंत्री के भांजे जंग बहादुर ने
दरबार के सारे देशभक्तों को एक जगह इकट्ठा कर खुद और सिर्फ अपने परिवार के लोगो
द्वारा तलवारों से उनका गला कटवा दिया. वहाँ लासे बिंछ गई. ऐसा उन्होंने
दो बार किया. पहले कांड का वर्णन ईतिहास में "भण्डारखाल पर्व" के रूप
किया है तो दूसरे को "कोत पर्व" कहा गया. जंगबहादुर ने देशभक्तों का
सफाया कर दिया था तथा रानी के साथ मिल कर प्रधानमंत्री बन राज्य सत्ता
की असली बागडोर अपने हाथ में ले ली थी. राजा को सोने के पिंजरे भाँति कैद कर
अधिकारों से च्युत कर दिया. भारत पर अंग्रेजों का राज था. जंगबहादुर अंग्रेजों का
विश्वासपात्र था. सन् १८५७ में जब भारत में सिपाही विद्रोह हुआ तो भारतीय जनता के दमन
एवं अंग्रेज शाषकों की सहायता के लिए जंगबहादुर ने नेपाल से फ़ौज भेजी. लौटते वक्त
उसकी फ़ौज को लखनऊ के राजखजाने को लूटने का इनाम मिला. वहाँ से ढेरों
हीरे जवाहरात और औरते उठा कर लाएं थे. यह घटना लखनऊ लूट के नाम से ईतिहास में वर्णित है. बाद में जंगबहादुर को बेलायत (ब्रिटेन) बुला कर सम्मानित भी किया गया.
जंगबहादुर की मृत्यु के बाद उनके
भाइयों द्वारा पुत्र तथा पौत्र की हत्या :
जंगबहादुर अपने एकमात्र बेटे जगतजंग को मुखिया जर्नेल कहते
थें, तथा अपने
पोते को नाती जर्नेल कह कर बुलाते थें. जंगबहादुर की मृत्यु के बाद उनके षड्यंत्रकारी
भाइयों के बीच भी प्रधानमंत्री बनने के विषय को ले कर अनबन हो गई.
जंगबहादुर की सत्ता प्राप्ती अभियान में उनके भाइयों ने सहयोग
किया था. अतः वे उनके पुत्र को सत्ता सौंपने को तैयार न थे. उनके भाई वीर शमसेर के
पुत्रों ने जंगबहादुर के बेटे तथा पोते का निर्ममता पूर्वक क़त्ल कर दिया. जंगबहादुर
का वंश समाप्त हो गया.
राणाओं का शाषण काल :
जंगबहादुर के बेटे तथा पोते की ह्त्या के बाद देश के
प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता जंगबहादुर के भाई एवं उनके बेटो के बीच चली. राणाओं
का शासन करीब १०३ वर्षों तक चला. उस कालखंड में शाहवंशी राजा नाम मात्र के हुआ करते थे. नेपाल में
राजाओं के नाम पर राणा प्रधानमंत्रियों के द्वारा शासण चलाया जाता था.
राणाओं ने समय समय पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय जनता के दमन में
अंग्रेजो का साथ दीया था. उन्हें ब्रिटिश हुकुमत के नजदीक माना जाता था. लेकिन
१९४७ में भारत के स्वतंत्र होने तक नेपाल में राणा कमजोर हो चुके थे.
राणाओं का अंत :
सन् १९४७ आते आते भारतीय स्वतंत्रता की हवा नेपाल में
भी बहने लगी, यहाँ भी लोग राणाओं के निरंकुश शासन से ऊब चुके थे.
बीपी कोइराला नेपाल के स्वतंत्रता आंदोलन के नायक बने. नेपाल की जनता तथा राजा ने
स्वाधीन भारत की मदद सन् १९५१ में राणाओं के शासन को
समाप्त हुआ तथा शाहवंशीय राजा त्रिभुवनको स्थापित किया गया, बहुदलीय व्यवस्था लागू हुई.
राजा त्रिभुवन की मृत्यु तथा महेंद्र
राजा बने :
राजा त्रिभुवन बड़े सरल हृदय के व्यक्ति थें तथा जनता से
उन्हें गहरा प्रेम था. वे भारत की स्वतंत्रता से बहुत खुश थे, तथा नेपाल में भी लोकतंत्र स्थापना करना चाहते थें. सन् १९५५ में राजा त्रिभुवन की स्वीटजरलैंड में रहस्यमयी
परिस्थितियों में हुई मृत्यु के बाद महेंद्र नेपाल के राजा बने.
राजा महेंद्र का द्वारा सैनिक कु एवं
लोकतंत्र का हरण :
महेंद्र एक राजपुत्र के रूप में पले बढे थे. एक आम नागरिक
प्रधानमंत्री बन जाए और राजा को उसके दिए बजेट पर गुजारा करना पड़े यह उनसे सहन न
हुआ. १९६० में राजा महेंद्र ने सेना की मदद से निर्वाचित प्रधानमंत्री बीपी
कोईराला को अपदस्थ करते हुए सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली
थी. राजा महेंद्र सामाजिक दृष्टि से देश के सांस्कृतिक एकीकरण के विरोधी साबित
हुए. उनके द्वारा किए गए विकास के बावजूद उनके कार्यकाल में हुए लोकतंत्र विरोधी
कार्यों ने जनता के बीच उनकी शाख गिर गई. कुछ लोग राजा महेंद्र को नेपाली राष्ट्रीयता
का प्रतीक भी मानते है, लेकिन वस्तुतः उनके द्वारा किए गए कार्य हीं आगे चल कर
शाहवंश के विरुद्ध जनता के विरोध का कारण बने.
चीन का उदय :
१९५० में चीन ने तिब्बत का अतिक्रमण किया. चीन भी नेपाल में
लोकतंत्र नहीं चाहता था. चीन को लगता था की नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना होगी तो
उसकी बयार तिब्बत में भी बहेगी. कदाचित इस कारण चीन ने भी लोकतंत्र के विरुद्ध नेपाल में राजा
महेंद्र की तानाशाही का साथ दिया. १९६१
में राजा महेंद्र ने चीन की यात्रा की.
भारत का क्षेत्रीय शक्ति के रूप में
उदय :
सन् १९७१ में बंगलादेश के निर्माण ने भारत को एक क्षेत्रीय
शक्ति के रूप में स्थापित किया. १९७५ में सिक्कीम के भारत विलय ने भी नेपाल के
शासकों को भारत की ओर देखने के दृष्टिकोण को परिवर्तन करने के लिए
बाध्य किया. उसके बाद नेपाल की विदेश नीति में थोड़ा संतुलन आया.
भारतीय जनता के दिल में नेपाल के
प्रति प्रेम की गंगा :
नेपाल के राजा का दिल्ली सरकार के साथ मतभेद होने
के बावजूद भारत के नागरिकों के बीच नेपाल के राजा का सम्मान बना रहा. नेपाल के
राजा भी हिंदू धर्म के प्रति अपनी अटूट आस्था प्रदर्शित कर भारतीय जनमानस का मन
मोहते रहें. राजा महेंद्र एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में जाना
चाहते थें, लेकिन
इंदिरा गांधी ने उन्हें मना कर दीया.
राजा महेंद्र की मृत्यु और वीरेन्द्र का राजा बनना :
राजा महेंद्र सन १९७२ की जनवरी महीने में शिकार खेलने
के लिए नेपाल के चितवन नामके जंगल में एक अमेरिकी जान
काप्मैन के साथ गए थे, वहाँ रात खाना खाने के बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी
मृत्यु हो गई. उनकी मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र वीरेन्द्र
नेपाल के राजा बने. अपने पिता के उलट वीरेन्द्र लोकतंत्र में विश्वास करते
थें. या कहें कि उन्होंने भाँप लिया था निरंकुशता से शासन करना
संभव नहीं.
नेपाल में प्रजातंत्र की पुनर्स्थापना
का पहला प्रयास :
१९६० में राजा महेंद्र के सैनिक कु के बाद नेपाल में
लोकतंत्र की स्थापना के कई प्रयास हुए. भारत में निर्वासित जीवन बिताने वाले बीपी
कोईराला के नेपाल पुनः आगमन एवं राष्ट्रव्यापी विरोध के बाद "बहुदलीय
प्रजातंत्र" या "निर्दलीय प्रजातंत्र" पर जनमत संग्रह कराने की
सहमति हुई. १९८० में हुए जनमत संग्रह में दो रंगों के चौकोर खंडो वाले मतपत्र का
प्रयोग हुआ था. परिणाम "निर्दलीय
प्रजातंत्र" के पक्ष में आए,
और राजा वीरेन्द्र के निरंकुश शासणको
निरंतरता प्राप्त हुई.
राजा सहित प्रजातंत्र की पुनर्स्थापना
एवं दलों में फुट :
जनमत संग्रह से राजतंत्र स्थापित हो गया थी. लेकिन उसके दश वर्ष बाद सन् १९९० में नेपाल की लोकतांत्रिक तथा
कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच पूर्ण राजतंत्र के खिलाफ संयुक्त आंदोलन करने की सहमति. उस वर्ष
हुए जन-आंदोलन-१ के बाद नेपाल में बहुदलीय प्रजातंत्र की स्थापना हुई जिसमे दलों
के माध्यम से जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति सरकार प्रमुख तथा राजा के
राष्ट्र-प्रमुख रहने की बात तय हुई. उस अनुरूप संविधान बना. १९९१ में हुए आम
निर्वाचन में नेपाली कांग्रेस ने बहुमत प्राप्त किया तथा गिरिजा प्रसाद कोईराला
प्रधानमंत्री बने. लेकिन ३ वर्षों के बाद नेपाली कांग्रेस पार्टी में शेरबहादुर
देउवा के पक्ष वाले ३६ सांसदों का अंतर्कलह शुरू हो गया, कम्युनिस्टो ने भी सडक आंदोलन किया और गिरिजा प्रसाद कोईराला ने संसद भंग कर दिया उसके बाद १९९४ में फिर चुनाव हुए, इस चुनाव में किसी भी दल को
स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) सबसे बड़ी पार्टी बन
कर उभरी, मनमोहन अधिकारी प्रधानमंत्री बने. लेकिन दलों के आपसी झगडो के कारण
यह संसद भी अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी. फिर १९९१ में २०५ सीटों के लिए हुए आम
निर्वाचन में नेपाली कांग्रेसको ११३ सीटें मिली. लेकिन कुछ दिनों के अंदर नेपाली
कांग्रेस में फिर से अंतर्कलह
शुरू हो गया, कोईराला तथा देउवा दो समूहों में बंट गए.
नेपाल में माओवादियों का छापामार युद्ध :
इसी बीच १९९६ में माओवादियों ने
छापामार हिंसक आंदोलन (जन-युद्ध) खड़ा कर दिया. राज्य
एवं विद्रोहियों की तरफ से १५००० लोग मारे गए. इस जन-युद्ध के दौरान
माओवादी नेताओं ने भारत के खिलाफ बड़ा विष-वमन किया. शुरुआती दौर में उनके दस्तावेजों से पता
लगता है की वे सर्वहारा के अधिनायकवाद की स्थापना तथा तथाकथित नेपाल में भारतीय
अर्द्ध औपनिवेश की समाप्ति चाहते है. माओवादी नेपाल में गो-ह्त्या को बढ़ावा देते
थे. संस्कृत शिक्षा का विरोध करते थे. जातीय तथा क्षेत्रीय द्वन्द को बढ़ावा देते थे. १९९१ के बाद नेपाल माओवादियों के भय
से आक्रांत रहा. सभी राजनितिक,
आर्थिक एवं समाजिक गतिविधियों में अवरोध आ गया.
राजा वीरेन्द्र एवं परिवार के सदस्यों की ह्त्या :
राजा वीरेन्द्र एक लोकप्रिय राजा थें. २००१
में रहस्यमयी ढंग से राजा वीरेन्द्र के परिवार की हत्या हो गई.
हत्या उनके अपने पुत्र द्वारा पारिवारिक कलह के कारण हुई यह बताया गया. उसके बाद
ज्ञानेंद्र नेपाल के राजा बने.
राजा ज्ञानेंद्र का सैनिक कु :
माओवादियों के जनयुद्ध के कारण चुनाव नहीं
कराए जा सके. कार्यकाल समाप्त होने का कारण बताते हुए संसद भंग कर दी गई. सन् २००५
में राजा ज्ञानेंद्र ने संविधान की एक धारा प्रयोग करते हुए सरकार के सभी
कार्यकारी अधिकार अपने हाथ में ले लिए, सैनिक शासन लागू कर दिया. नेपाल में फिर लोकतंत्र का हरण हो
गया.
दलों का असफल आंदोलन :
सन् १९९० से २००५ तक पार्टियों के व्यवहार से जनता ऊब चुकी थी.
दलों ने आंदोलन किया लेकिन अलग अलग पार्टियों की असंगठित शक्ति राजा की सामर्थ्य
के आगे प्रभावहीन बन चुकी थी. दलों को लोक-समर्थन न्यून मात्र था.
दिल्ली समझौता, दूसरा जन आंदोलन तथा राजा ज्ञानेंद्र का गद्दी त्यागना :
दिसम्बर २००७ में माओवादी एवं प्रमुख लोकतांत्रिक दलों के बीच निरंकुश राजतंत्र को हटाने संबंधी
भारत की राजधानी दिल्ली में एक समझौता हुआ. माओवादियों ने
जन-युद्ध का रास्ता छोड़ दलीय पद्धति के माध्यम से अपना अभीष्ट हासिल करना स्वीकार
किया. सभी दलों के संयुक्त प्रयास से जन-आंदोलन-२ का मंचन हुआ. सन
२००६ में राजाको गद्दी त्यागते हुए संसद पुनर्स्थापना के लिए बाध्य होना पड़ा.
राजतंत्र की समाप्ति तथा संविधान सभा
का निर्वाचन :
पुनर्स्थापित संसद ने राजतंत्रको हटाने का निर्णय लिया.
देशको हिंदू राज्य से धर्म-निरपेक्ष घोषित किया गया. अंतरिम संविधान बनाया गया जिसके तहत २
वर्षों की अवधि निश्चित कर २००८ में संविधान सभा के निर्वाचन हुए. अप्रत्याशित रूप से माओवादी इस चुनाव
में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे.
संविधान न बन सका - संविधान सभा भंग
हो गई :
अंतरीम संविधान के अनुसार दो वर्षों में संविधान का निर्माण
नहीं हो सका. दो बार अवधि बढाए जाने के बावजूद दलों के बीच संविधान को ले कर
मतैक्य नही हो सका, और अन्ततः संविधान सभा भंग हो गई. संविधान सभा भंग होने के
समय माओवादी नेता बाबुराम भट्टराई देश के कामचलाऊ प्रधानमंत्री थे, तथा रामबरन यादव राष्ट्रपति. सरकार को कुछ मधेसी दलों का समर्थन
प्राप्त था, दूसरी तरफ नेपाली कांग्रेस तथा नेकपा(एमाले) प्रमुख विपक्षी दल
थे.
प्रधान न्यायधीश की अध्यक्षता में
चुनाव परिषद का निर्माण :
संविधान सभा भंग होने के बाद प्रमुख दलों के बीच संविधान सभा के नए चुनाव कराए जाने के ले कर घमासान मचा. सभी
प्रमुख दल अपने नेतृत्व में चुनाव कराना चाहते थें. अंततः सर्वोच्च अदालत के
प्रधान न्यायधीश खिलराज रेग्मी को प्रधानमंत्री बना कर निर्वाचन कराए जाने के
विकल्प पर सहमति बनी. इस सहमति को नहीं बनने देने को ले कर भी
प्रयास जोरो पर था. लेकिन अंततः अमेरिका, भारत आदि देशों ने गतिरोध
समाप्त करने हेतु निर्वाचन कराने का
अनौपचारिक दवाब बनाया और प्रधान न्यायधीश की अध्यक्षता में चुनाव करवाना निश्चित
हुआ. अब आगे देखें क्या चुनाव होता है, चुनाव के परिणाम क्या आते है.
लेखक को मै नमन करता हुँ ...सुवोध कुमार
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